श्री हरिदास रामानंदी महात्मा जी ( वृंदावन ) २५० वर्ष पूर्व

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इस ब्रह्माण्ड में जितने भी स्थान हैं वह श्री भगवान् जी के ही हैं वह सभी जगह विद्यमान हैं ,परन्तु सभी जगहों में त्रिलोकीनाथ श्री भगवान जी को वृन्दावन सबसे अधिक प्रिय है। श्री भगवान जी यहां सदा से विराजमान हैं पर उनके अन्य अवतारों को भी यदि बृजभूमि का लोभ हो जाये तो यह स्वाभाविक ही है।

आज से तक़रीबन २५० वर्ष पूर्व श्री जगन्नाथ भगवान जी को जो श्री धामपुरी में विराजमान हैं ,उनको भी वृंदावन में विग्रह रूप में जाने की ऐसी ही इच्छा हुई। वे दिव्य वृंदावन में वास करने की इच्छा को छोड़ न सके। सर्व समर्थ होते हुए भी जब कभी श्री भगवान जी के किसी अवतार को ऐसी इच्छा हुई है तो उन्होंने हमेशा किसी न किसी महान भक्त को इसके लिए प्रेरणा दी है। ऐसे महान भक्तों के वे पूर्णतया अधीन हो जाते हैं , फिर भक्त उन्हें जहाँ चाहे ले जाएँ और जैसे चाहे रखें। ऐसे ही एक महान भक्त की खोज श्री जगन्नाथ भगवान जी को वृंदावन जाने के लिए भी हुई जो उन्हें वहां ले जाता और उनकी सेवा करता।

उस समय वृंदावन में हरिदास नाम के एक महात्मा थे जो की सदैव प्रभु के ही चिंतन में, उनकी भक्ति में दिन रात डूबे रहते थे, सदैव प्रभु का ही चिंतन चलता था और प्रभु के विरह में रट रहते थे उसी महान महात्मा की प्रेममयी भक्ति से प्रसन्न हो कर श्री भगवान् जी ने उनको अपनी इच्छा पूरी करने के लिए निमित्त बनाया। एक दिन प्रभु ने उनको दर्शन दिए। उनके रूप माधुर्य के दर्शन करके वह अचेत हो गए। वह अपनी सुध बुद्ध खो बैठे थे। तब श्री भगवान् जी ने अपना हस्तकमल उनके मस्तक पर रखा तब जा कर हरिदास बाबा जी को होश आया। होश में आते ही उन्होंने अपना मस्तक भगवान् जी के चरणकमल पर रख दिया। तब श्री भगवान् जी ने उन्हें कहा की वत्स मैं तुम्हारी प्रेममयी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ और मैं तुम्हे अपनी सेवा का वरदान देने आया हूँ ,मैं यहीं इस दिव्य वृन्दावन में तुम्हारे पास वास करूंगा ताकि तुम्हारी प्रेममयीभक्ति का रसास्वादन करता रहूँ। मेरी इस इच्छा को पूरा करने के लिए तुम्हे जगन्नाथ पूरी जाना होगा और वहां इस वर्ष जगन्नाथ जी का विग्रह परिवर्तन महोत्सव होगा, मेरा पुराना विग्रह तुम्हे यहां लाना होगा और इसी स्थान पर तुम उस विग्रह को स्थापित कर मेरी सेवा करना , इतना कह कर भगवान् अंतर्ध्यान हो गए। हरिदास जी उनके अंतर्ध्यान होने पर छटपटाने लगे , व्याकुल होने लगे। उन्हें श्री भगवान जी की आज्ञा का ध्यान आया और अपनी स्थिति को सँभालते हुए वो उनकी आज्ञा की पालना करने के लिए अपने कुछ शिष्यों के साथ भजन कीर्तन करते हुए जगन्नाथपूरी जी की ओर निकल पड़े।

उस समय रेल की सुविधा नहीं थी तो हरिदास जी अपनी मण्डली के साथ पैदल ही बीहड़ जंगलों से होते हुए नदी नालों को पार करते हुए मस्ती में नाचते गाते झूमते जगन्नाथपूरी जी की ओर चलते गए की मैं अपने श्री भगवान जी के विग्रह लेके वृन्दावन में जाऊंगा और फिर सारी उम्र उनकी सेवा में ही बिताऊंगा। जगन्नाथपूरी जी में भगवान जी का कलेवर बदलने का और उनके महाभिषेक का महोत्सव भी था , दूर-दूर से यात्री भगवान श्री जगन्नाथ जी के दर्शन करने आये हुए थे। वहां पहुँचने पर हरिदास जी ने मंदिर के पुजारियों से अपने आने का कारण विनम्रता पूर्वक बताया व उनसे भगवान जी का पुराना विग्रह लेने का अनुरोध किया तो पुजारियों ने उनसे कहा की जगन्नाथ जी का पुराना विग्रह देने का हमे अधिकार नहीं है इसके लिए उन्हें यहाँ के राजा से मिलना पड़ेगा वही इसका समाधान निकाल सकते हैं। हरिदास जी राजा से मिलने उसी पल चल दिए। राजा से मिलने पर हरिदास जी ने उनसे वही प्रार्थना दोहराई की श्री भगवान जी के आदेश पर ही वह यहाँ उनके पुराने विग्रह लेने आये हैं। इस बात को सुनने के बाद राजा ने उनसे कहा की महात्मा जी भगवान जी ने आपको आज्ञा दी है परन्तु मुझे तो उनकी और से कोई आज्ञा नहीं है उनकी प्रत्यक्ष आज्ञा के बगैर मैं आपकी इच्छा पूरी नहीं कर सकता। सदा से चली आ रही प्रथा के अनुसार जगन्नाथ भगवान जी का पुराना विग्रह समुद्र में प्रवाहित कर दिया जाता है ,अतः इस प्रथा को बदला नहीं जा सकता और मैं आपसे क्षमा मांगता हूँ की मैं आपकी इच्छा पूरी नहीं कर सका।हरिदास जी ने कहा की यदि आप मेरे भगवान जी की इच्छा पूरी नहीं कर सकते और उनके पुराने विग्रह जो मैं लेने आया हूँ उनको समुद्र में प्रवाहित करेंगे तो मेरा यह शरीर भी उनके साथ ही प्रवाहित होगा। ये कह कर वह समुद्रतट की और चल दिए और अन्नजल त्याग कर समुद्रतट पर उस समय की प्रतीक्षा करने लगे की जब उनके भगवान जी का विग्रह वहां जलप्रवाहित होगा उसी समय वो भी उनके साथ ही समुद्र में जलसमाधि ले लेंगे। उसी मध्यरात्रि को सोते समय राजा को स्वप्न में भगवान जी आये और उसे सख्त शब्दों में कहा की जो महात्मा आज तुम्हारे पास आया था वह मेरी इच्छा पूरी करने ही आया था और तुमने उसका अनादर किया है, तुम उनसे माफ़ी मांगो और प्रायश्चित करते हुए मेरे विग्रह उन्हें सौंप दो और उनको आदर के साथ विदा करो। राजा भयभीत हो कर जाग गया व तुरंत हरिदास जी को ढूंढ़ने अपने सैनिक भेज दिए। हरिदास जी का पता चलते ही राजा तुरंत समुद्रतट की और भागा , वहां जाकर हरिदास जी के चरणों में गिर कर माफ़ी मांगने लगा और भगवान जी ने जो स्वप्न में आदेश दिया था उसके बारे में बताया। भगवान जगन्नाथ जी के महाभिषेक के पश्चात् राजा ने एक विशाल रथ में श्री जगन्नाथ जी,श्री बलदाऊ जी और श्री सुभद्रा जी के विग्रहों को विराजमान कर धनधान्य और सेना के साथ सुशोभित कर वृंदावन के लिए विदा किया। हरिदास जी अपने शिष्यों के साथ परामनन्द पूर्वक नाचते गाते भजन कीर्तन करते हुए कईं महीनो के बाद वृंदावन अपने भगवान जी के साथ पहुंचे। वृन्दावन में उसी जगह जहाँ भगवान जी का आदेश हुआ था ,जहाँ हरिदास जी भजन कीर्तन किया करते थे ,वहीं एक सूंदर सा मंदिर बना कर श्री विग्रहों का विधिवत स्थापित किया और रात दिन उनकी सेवा करने लग गए। आज भी भक्तगण वृन्दावन में उस स्थान पर जा कर भगवान जगन्नाथ जी के विग्रहों के दर्शन कर कृतार्थ होते हैं। जगन्नाथ जी की यात्रा के दिन वहां अपार भीड़ देखने को मिलती है।

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